Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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सोफी-क्या इसका निर्णय करना मुश्किल है?
क्लार्क-हाँ, इसलिए मुश्किल है कि जन-सम्मत्तिा से राज्य करने की जो व्यवस्था हम लोगों ने खुद की है, उसे पैरों-तले कुचलना बुरा मालूम होता है। राजा कितना ही सबल हो, पर न्याय का गौरव रखने के लिए कभी-कभी राजा को भी सिर झुकाना पड़ता है। मेरे लिए कोई बात नहीं, फैसला मेरे अनुकूल हो प्रतिकूल, मेरे ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ता; बल्कि प्रजा पर हमारे न्याय की धाक और बैठ जाती है। (मुस्कराकर) गवर्नर ने मुझे इस अपराध के लिए दंड भी दिया है। वह मुझे यहाँ से हटा देना चाहते हैं।
सोफ़िया-क्या तुम्हें इतना दबना पड़ेगा?
क्लार्क-हाँ, मैं रियासत का पोलिटिकल एजेंट बना दिया जाऊँगा, यह पद बड़े मजे का है। राजा तो केवल नाम के लिए होता है, सारा अख्तियार तो एजेंट ही के हाथों में रहता है। हममें जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हीं को यह पद प्रदान किया जाता है।
सोफ़िया-तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।
मिस्टर क्लार्क इस व्यंग से मन में कटकर रह गए। उन्होंने समझा था सोफी यह समाचार सुनकर फूली न समाएगी, और तब मुझे उससे यह कहने का अवसर मिलेगा कि यहाँ से जाने के पहले हमारा दाम्पत्य सूत्र में बँधा जाना आवश्यक है। 'तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो,' इस निर्दय व्यंग ने उनकी सारी अभिलाषाओं पर पानी फेर दिया। इस वाक्य में वह निष्ठुरता, वह कटाक्ष, वह उदासीनता भरी हुई थी, जो शिष्टाचार की भी परवा नहीं करती। सोचने लगे-इसकी सम्मति की प्रतीक्षा किए बिना मैंने अपनी इच्छा प्रकट कर दी, कहीं यह तो इसे बुरा नहीं लगा?शायद समझती हो कि अपनी स्वार्थ-कामना से यह इतने प्रसन्न हो रहे हैं, पर उस बेकस अंधो की इन्हें जरा भी परवा नहीं कि उस पर क्या गुजरेगी। अगर यही करना था, तो यह रोग ही क्यों छेड़ा था। बोले-यह तो तुम्हारे फैसले पर निर्भर है।
सोफी ने उदासीन भाव से उत्तार दिया-इन विषयों में तुम मुझसे चतुर हो।
क्लार्क-उस अंधो की फिक्र है।
सोफी ने निर्दयता से कहा-उस अंधो के खुदा तुम्हीं नहीं हो।
क्लार्क-मैं तुम्हारी सलाह पूछता हूँ और तुम मुझी पर छोड़ती जाती हो।
सोफी-अगर मेरी सलाह से तुम्हारा अहित हो, तो?
क्लार्क ने बड़ी वीरता से उत्तार दिया-सोफी, मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ?
सोफी-(हँसकर) इसके लिए मैं तुम्हारी बहुत अनुगृहीत हूँ।
इतने में मिसेज़ सेवक वहाँ आ गईं और क्लार्क से हँस-हँसकर बातें करने लगीं। सोफी ने देखा, अब मिस्टर क्लार्क को बनाने का मौका नहीं रहा, तो अपने कमरे में चली आई। देखा, तो प्रभु सेवक वहाँ बैठे हैं। सोफी ने कहा-इन हजरत को अब यहाँ से बोरिया-बँधना सँभालना पड़ेगा। किसी रियासत के एजेंट होंगे।
प्रभु सेवक-(चौंककर) कब?
सोफी-बहुत जल्द। राजा महेंद्रकुमार इन्हें ले बीते।
प्रभु सेवक-तब तो तुम यहाँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हो!
सोफी-मैं इनसे विवाह न करूँगी।
प्रभु सेवक-सच?
सोफी-हाँ, मैं कई दिन से यह फैसला कर चुकी हूँ, पर तुमसे कहने का मौका न मिला।
प्रभु सेवक-क्या डरती थीं कि कहीं मैं शोर न मचा दूँ?
सोफी-बात तो वास्तव में यही थी।
प्रभु सेवक-मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मुझ पर इतना अविश्वास क्यों करती हो? जहाँ तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारी बात किसी से नहीं कही।
सोफी-क्षमा करना प्रभु! न जाने क्यों मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। तुममें अभी कुछ ऐसा लड़कपन है, कुछ ऐसे खुले हुए निर्द्वंद्व मनुष्य हो कि तुमसे कोई बात कहते उसी भाँति डरती हूँ, जैसे कोई आदमी वृक्ष की पतली टहनी पर पैर रखते डरता है।
प्रभु सेवक-अच्छी बात है, यों ही मुझसे डरा करो। वास्तव में मैं कोई बात सुन लेता हूँ, तो मेरे पेट में चूहे दौड़ने लगते हैं और जब तक किसी से कह न लूँ, मुझे चैन ही नहीं आता। खैर, मैं तुम्हें इस फैसले पर बधाई देता हूँ। मैंने तुमसे स्पष्ट तो कभी नहीं कहा; पर कई बार संकेत कर चुका हूँ कि मुझे किसी दशा में क्लार्क को अपना बहनोई बनाना पसंद नहीं है। मुझे न जाने क्यों उनसे चिढ़ है। वह बेचारे मेरा बड़ा आदर करते हैं; पर अपना जी उनसे नहीं मिलता। एक बार मैंने उन्हें अपनी एक कविता सुनाई थी। उसी दिन से मुझे उनसे चिढ़ हो गई है। बैठे सोंठ की तरह सुनते रहे, मानो मैं किसी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हूँ। कविता का ज्ञान ही नहीं। उन्हें देखकर बस यही इच्छा होती है कि खूब बनाऊँ। मैंने कितने ही मनुष्यों को अपनी रचना सुनाई होगी, पर विनय-जैसा मर्मज्ञ और किसी को नहीं पाया। अगर वह कुछ लिखें तो खूब लिखें। उनका रोम-रोम काव्यमय है।
सोफी-तुम इधर कभी कुँवर साहब की तरफ नहीं गए थे?
प्रभु सेवक-आज गया था और वहीं से चला आ रहा हूँ। विनयसिंह बड़ी विपत्तिा में पड़ गए हैं। उदयपुर के अधिकारियों ने उन्हें जेल में डाल रखा है।
सोफ़िया के मुख पर क्रोध या शोक का कोई चिद्द न दिखाई दिया। उसने यह न पूछा, क्यों गिरफ्तार हुए? क्या अपराध था? ये सब बातें उसने अनुमान कर लीं। केवल इतना पूछा-रानीजी तो वहाँ नहीं जा रही हैं?
प्रभु सेवक-न! कुँवर साहब और डॉक्टर गांगुली, दोनों जाने को तैयार हैं; पर रानी किसी को नहीं जाने देतीं। कहती हैं, विनय अपनी मदद आप कर सकता है। उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं।
सोफ़िया थोड़ी देर तक गम्भीर विचार में स्थिर बैठी रही। विनय की वीर मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर रही थी। सहसा उसने सिर उठाया और निश्चायात्मक भाव से बोली-मैं उदयपुर जाऊँगी।
प्रभु सेवक-वहाँ जाकर क्या करोगी?
सोफी-यह नहीं कह सकती कि वहाँ जाकर क्या करूँगी। अगर और कुछ न कर सकूँगी, तो कम-से-कम जेल में रहकर विनय की सेवा तो करूँगी, अपने प्राण तो उन पर निछावर कर दूँगी। मैंने उनके साथ जो छल किया है, चाहे किसी इरादे से किया हो, वह नित्य मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभा करता है। उससे उन्हें जो दु:ख हुआ होगा, उसकी कल्पना करते ही मेरा चित्ता विकल हो जाता है। मैं अब उस छल का प्रायश्चित्ता करूँगी, किसी और उपाय से नहीं, तो अपने प्राणों ही से।
यह कहकर सोफ़िया ने खिड़की से झाँका, तो मि. क्लार्क अभी तक खड़े मिसेज सेवक से बातें कर रहे थे। मोटरकार भी खड़ी थी। वह तुरंत बाहर आकर मि. क्लार्क से बोली-विलियम, आज मामा से बातें करने ही में रात खत्म कर दोगे? मैं सैर करने के लिए तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ।
कितनी मंजुल वाणी थी! कितनी मनोहारिणी छवि से, कमल-नेत्रों में मधुर हास्य का कितना जादू भरकर, यह प्रेम-ाचना की गई थी! क्लार्क ने क्षमाप्रार्थी नेत्रों से सोफ़िया को देखा-यह वही सोफ़िया है, जो अभी एक ही क्षण पहले मेरी हँसी उड़ा रही थी! तब जल पर आकाश की श्यामल छाया थी, अब उसी जल में इंदु की सुनहरी किरण नृत्य कर रही थी, उसी लहराते हुए जल की कम्पित, विहसित, चंचल छटा उसकी आँखों में थी। लज्जित होकर बोले-प्रिये, क्षमा करो, मुझे याद ही न रही, बातों में देर हो गई।
सोफ़िया ने माता को सरल नेत्रों से देखकर कहा-मामा, देखती हो इनकी निष्ठुरता, यह अभी से मुझसे तंग आ गए हैं। मेरी इतनी सुधि न रही कि झूठे ही पूछ लेते, सैर करने चलोगी?

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